"मेरी 'आँखों' को जब कभी, वो 'मंज़र' दिखाई देंगे;
'आस्तीनों' में खुबे हुए वो 'खंजर' दिखाई देंगे...
'आँखों' में 'तैरता' हुआ वो 'मोहब्बत' का 'दरिया';
'बाँहों' में सिमटे हुए वो 'समंदर' दिखाई देंगे...
एक वो 'शख्स' जो मिलता था हमसे, 'भेष' बदल कर;
'चहरे' के पीछे छिपे हुए, वो 'कलंदर' दिखाई देंगे....
'पूज' कर 'वफ़ा' को, जो 'प्यार' का 'मंदिर' बनवाया था;
वही 'ताजमहल' फिर हमें, 'बंजर' दिखाई देंगे....
जिन 'आँखों, में यार की, 'मूरत' बसा करती थी;
उन 'आँखों' में चुभे हुए, 'नश्तर' दिखाई देंगे....
ढूंढ़ते हो जिन को, 'दुनिया' की ' भीड़' में;
वो मेरे 'कातिल', मेरे ही 'अन्दर' दिखाई देंगे....."
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मानव मेहता