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Monday, July 29, 2013

लम्हों का सफर















रुखसत होने को अब चंद ही लम्हें बचे हैं .....
मेरे जिस्म से निकला है लावा 
इक शोला बैठ गया है छिप कर -
रूह के पिछले हिस्से में 
इक खला सी बस गयी है ......

ना उदासी है ना हैरानी है 
न ख़ामोशी , न तन्हाई 
सीला सा मौसम है बस...!
न धूप है ना बारिश 
बस चिपचिपे से लम्हें 
बरसते जाते हैं बादलों से ....

मैं बचते बचाते ; इन लम्हों से 
धकेलता हुआ पीछे 
बढ़ता जाता हूँ बादलों की ओर ...

इसी एक बादल पर पाँव रख कर 
मैं उस पार उतर जाऊँगा ..
बस कुछ ही लम्हों में -
इस जहाँ से गुजर जाऊँगा ...!!


मानव मेहता 'मन'