मेरे जिस्म से निकला है
लावा
इक शोला बैठ गया है छिप
कर -
रूह के पिछले हिस्से में
इक खला सी बस गयी है
......
ना उदासी है ना हैरानी
है
न ख़ामोशी , न तन्हाई
सीला सा मौसम है बस...!
न धूप है ना बारिश
बस चिपचिपे से लम्हें
बरसते जाते हैं बादलों
से ....
मैं बचते बचाते ; इन लम्हों से
धकेलता हुआ पीछे
बढ़ता जाता हूँ बादलों की
ओर ...
इसी एक बादल पर पाँव रख
कर
मैं उस पार उतर जाऊँगा
..
बस कुछ ही लम्हों में -
इस जहाँ से गुजर जाऊँगा ...!!
मानव मेहता 'मन'