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Monday, July 22, 2013

मानो इक ही कहानी का हक़दार था मैं...


















मानो इक ही कहानी का हक़दार था मैं...
साल दर साल गुजरते गए,
हर लम्हे को पीछे छोड़ा मैंने,
मगर आज तक ये मलाल है मुझको,
कि मेरी जिंदगी कि किताब के हर सफ्हे पर;
एक सी ही लिखावट नज़र आई है मुझे...

गम ; अफ़्सुर्दगी ; रंज ; और तन्हाई;
बस इन्ही लकीरों में जिया जाता हूँ हर लम्हा...
और मजबूरी के आलम में पलट रहा हूँ,
इक इक करके-
उम्र की इस किताब का हर इक सफ़्हा...

बस अब तो बेसब्री से इंतजार कर रहा हूँ मैं-
इस आखिरी सफ्हे का,
जब इन सबसे निजात मिल जायेगी मुझको,
और मैं भी सोऊंगा इक दिन
अपने Coffin में सुकून भरी नींद....!!



मानव मेहता 'मन'