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Monday, March 02, 2020

किताबें धूल फांकती है शेल्फ पर















किताबें धूल फांकती है शेल्फ पर
अरसा हो गया है
उन्हें पढ़े हुए
मैं नहीं खोलता अब उनके वर्क –
कि अब उन लफ्ज़ों में
ठहरता नहीं है मन

रात जब मद्धम करके रौशनी को
अपनी टेबल पर बैठता हूँ
तो उन किताबों से खुद ब खुद निकल कर
आ बैठते हैं कुछ अल्फाज़ मेरे ज़ेहन में
बहुत शोर करती है
लफ्ज़ों की खनखनाहट
मगर जब इन्हें समेट कर
लिखना चाहूँ जो राइटिंग पैड पर
तो गायब हो जाते हैं अचानक ...

अब इनसे मेरा वास्ता नहीं रहा कोई
ना मैं अब इनके करीब जाता हूँ
ना ये मेरे करीब आते हैं |

अरसा हो गया
किताबें धूल फांकती है शेल्फ पर ....!!


~मानव ‘मन’ 

Friday, May 10, 2013

अल्फाज़











मेरे अल्फाज़ अब तुम मुझसे यूँ दगा ना करो
मैं जानता हूँ कि चंद महीनों से ,
मैंने कागज पर उतारा नहीं तुमको ...
एक मुद्दत से अपने जख्मों पर ,
तेरे नाम का मरहम नहीं रखा ...

मगर ऐ मेरे अल्फाज़
सब कसूर मेरा तो नहीं ....

तुमने भी तो कहाँ मेरे जेहन में आकर –
सोई हुई कविताओं को जगाया था कभी ....
और इन नज्मों की तारों को भी तो तुमने –
कभी थर-थराया नहीं था ....
जब कभी सर्द रातों में –
चाँदनी के आँगन टहलता था मैं –
तब भी तो तुम आते नहीं थे ...

और इक रोज जब उसके शहर मेरा जाना हुआ था –
तब कहाँ थे तुम ??
क्यूँ नहीं इक नज़्म बन कर –
उसके दरवाजे पर छूट आए थे तुम .......

खैर अब जो कागज कलम लिए बैठा हूँ मैं –
तो उतर आओ मेरे दिल के किसी कोने से –
इन पन्नों पर बिखर जाओ –
मेरे लहू के संग ...
चंद बातें कर लो मुझसे –
कि आज दिल उदास बहुत है ....!!


मानव मेहता ‘मन’