Friday, September 04, 2009

आँखों की जुबान











"सुना है 'आँखों' की 'जुबान' होती है....
'ब्यान' करती है, यह 'दिल' के सब हाल,
गर ऐसा है तो बताओ मुझको भी जरा ;
जान जाऊं मैं भी उसके, सब 'जज़्बात-ओ-ख्याल'......

'वो' बैठें पास 'मेरे', और 'नज़रों' से 'नज़रें' मिलाएं;
'आँखों' की 'जुबान' से, वो दिल का 'राज' बताएं....
तो कैसे जानूं की उसकी 'आँखें' क्या कहती हैं ;
मुझे तो उसकी 'आँखों' में सिर्फ 'गहराई' नज़र आती है......

जी चाहता है, उस 'गहराई' में दूर तक 'उतरता' जाऊं ;
कोई दे 'सदा' फिर भी पलट कर न आऊँ....
इन 'आँखों' के 'रास्ते' उसके दिल तक 'उतरना' चाहता हूँ ;
चाहे कुछ भी हो जाए, इन 'आँखों' से 'प्यार' करना चाहता हूँ......

7 comments:

  1. 2-phara of this poem is amazing.sir ji

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  2. कल 30/12/2011को आपकी यह पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
    धन्यवाद!

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  3. सीधी सपाट भाषा में अच्छी कविता

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  4. बहुत सुन्दर कविता...

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  5. गहन भावों का समावेश ...

    नववर्ष की अनंत शुभकामनाओं के साथ बधाई ।

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आपकी टिपणी के लिए आपका अग्रिम धन्यवाद
मानव मेहता