“तरो-ताज़ा लग रहा है आज ये मन मेरा,
जाड़ों की खिली धूप में नहा कर निकला हो जैसे...
जर्द पत्ते भी अब हरे हो गए हैं इसके,
टहनियों पर इसके खुशियों के फूल उग आये हैं...
बदला बदला सा लग रहा है आज हर मौसम,
इसकी दीवारों से दर्द के सीलन की महक हट गई
है,
परदे भी कुछ उजले से नज़र आ रहें हैं मुझको...
और जो गम के काले साये बिखरे रहते थे हर तरफ,
जाने कहाँ इक ही लहजा में घूम गए हैं...
और जैसे किसी हांड़ी में रख दिए हों,
कुछ चावल पकने की खातिर-
ठीक वैसी ही महक इसके भीतर से आ रही है
मुझको....
इसके भीतर कोई तो नई बात हुई है आज,
इसके भीतर इक ‘नया रिश्ता’ पक रहा है
शायद......”
मानव मेहता ‘मन’