वक्त को हथेली पर रख कर
ऊँगलियों पर लम्हें गिने हैं...
दर्द देता है हौले से दस्तक-
इन लम्हों के कई पोरों में बसा हुआ है वो....!!
ज़ब्त करती हैं जब पलकें,
किसी टूटे हुए ख्वाब को-
आँखों में दबोचती हैं
तब पिघलता नहीं है मोम-
बस टुकड़े चुभते हैं उस काँच के....!!
इन आँखों से अब पानी नहीं रिसता,
दर्द अब पत्थर हो चला है.....!!
बहुत मर्म स्पर्शी ...
ReplyDeleteसिहरन सी अनुभूति
ReplyDeleteमन को छू गयी आपकी कविता ...
ReplyDeleteकुछ ही शब्दों में बहुत कुछ कह दिया दिल में उतर गए शब्द
ReplyDeleteवाह ...बहुत सुन्दर
सुन्दर!
ReplyDeleteसुंदर कविता है, मगर दूसरे पैरे का पहला शब्द समझ नहीं आया - वह जब्त है या जज्ब!
ReplyDeleteजबत करती हैं जब पलकें,
ReplyDeleteकिसी टूटे हुए ख्वाब को-
आँखों में दबोचती हैं
तब पिघलता नहीं है मोम-
बस टुकड़े चुभते हैं उस काँच के...
यह कविता मन को छू लेती है, आत्मीय लगती है
मानव जी,...समर्थक बन गया हूँ,आप भी बने मुझे खुशी होगी,
WELCOME TO MY RESENT POST t....काव्यान्जलि ...: कभी कभी.....
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ReplyDeleteइन आँखों से अब पानी नहीं रिसता,
ReplyDeleteदर्द अब पत्थर हो चला है...........
शानदार कविता पढ़वाई आपने
शुक्रिया संगीता दीदी
मर्मस्पर्शी अभिव्यक्ति...
ReplyDeleteआप सभी मित्रों का बहुत बहुत शुक्रिया.......
ReplyDeleteआभार.....!!!
दीपिका जी....शुक्रिया आपका इस रचना को पसंद करने के लिये... ये शब्द जब्त है....:)
ReplyDeletekya baat hai.....
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