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शाम ढली
तो लेम्प के इर्द-गिर्द
कुछ
अल्फाज़ भिन-भिनाने लगे.......
‘टेबल’ के
ऊपर रखे मेरे ‘राईटिंग पेड’ के ऊपर-
उतर जाने
को बेचैन थे सभी ......
कलम उठाई
तो गुन-गुनाई एक नज़्म-
मूँद ली
आँखें दो पल के लिए उसको सुनने की खातिर
हुबहू
मिलती थी उससे –
एक अरसा
पहले जिसे मैंने सुना था कभी ....
आँख खोली
तो देखा –
कुछ हर्फ़
लिखे थे सफ्हे पर ...
महक रहे
थे तेरा नाम बन कर
चमक रहे
थे ठीक उसी तरह –
काली चादर
पर आसमान की –
चंद मोती
चमकते हैं जैसे ......
तेरा नाम
सिर्फ तेरा नाम ना रह कर –
एक
मुकम्मल नज़्म बन गई है देखो .....
इससे
बेहतर कोई नज़्म ना सुनी कभी
ना लिखी
कभी ....... !!
मानव मेहता 'मन'