"दर्द आँखों में छलक जाए, तो छुपायें कैसे,
'वो जो अपने थे, उन्हें अपना बनाएं कैसे...'
'दर्द' मिलता है कभी 'हवाओं' से, तो कभी 'बारिश' से,
'साथ बीता हुआ वो 'सावन', हम भुलाएँ कैसे....'
'कभी गुज़री थी 'ज़िन्दगी', तेरे 'पहलु' में 'जन्नत' की तरह,
'अब फिर से ये 'ज़िन्दगी', 'जन्नत' बनाएं कैसे....'
'तुम तो चले गए, मुझसे 'बेसबब' 'रूठ' कर,
'अब वापिस तुम्हे अपनी 'ज़िन्दगी' में, बुलाएं कैसे....
'कहते थे तुम कभी जो 'आइना' मुझको,
'अब इस 'आईने' में तुम्हे, तुम्हारी 'शकल' दिखाए कैसे...'
'दे रही हैं 'सदाएँ' आज भी इस 'दिल' की 'धड़कन' तुमको,
'पर सोचते हैं तुम्हे ये 'आवाज', सुनाएँ कैसे...'
'इक 'भरम' पाला है मैंने, मेरे 'जहन' के कोने में,
'बरसों के ये 'मरासिम', इक पल में हम मिटायें कैसे...."
अच्छी रचना.................
ReplyDeleteसुन्दर भाव
अच्छे शे'र.........
पूरी रचना बहुत सुन्दर है मगर इस उम्र मे इतनी उदासी अच्छी नहीं शुभकामनायें
ReplyDeleteगजल के बहाने आपने सार्थक सवाल खडे किए हैं।
ReplyDeleteवैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाएं, राष्ट्र को प्रगति पथ पर ले जाएं।
बहुत उम्दा!
ReplyDeleteदर्द मिलता है कभी हवाओं से तो कभी बारिश से
ReplyDeleteसाथ बिता हुआ वो सावन हम भुलाएं कैसे
बहुत सुंदर....!!
मानव जी आपने मन के भावों को बहुत ही साफ और सरल शब्दों में प्रेषित किया है ....!!
This comment has been removed by the author.
ReplyDeleteबहुत सुन्दर लिखते हैं आप ..यह गजल बहुत पसंद आई शुक्रिया
ReplyDeleteबेहतर रचना.
ReplyDeleteजारी रहें.
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महिलाओं के प्रति हो रही घरेलू हिंसा के खिलाफ [उल्टा तीर] आइये, इस कुरुती का समाधान निकालें!
तुम्हारी इस गज़ल ने मुझे निशब्द कर दिया है..............
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