Wednesday, July 03, 2013

उमस भरी रात...

रात तारों ने फांसी लगा ली...
चांदनी का कफ़न ओढे-
चाँद सोता रहा ।
दर्द चिपचिपाते रहे आपस में...
उमस भरी रात जख्म कुरेदती रही...
अँधेरा कचोटता रहा-
जेहन में पलती हुई नज़्म को...
क़त्ल हो गए कुछ लफ्ज़-
घुटती हुई साँसों में घुट कर...
कल शब् भर आसमाँ से
मातम बरसते देखा मैंने ।


Wednesday, June 19, 2013

जिंदगी











.......कभी गरम धूप सी चुभती है जिंदगी,
कभी हसीं शाम सी कोमल लगती है जिंदगी....

कभी मासूम सुलझी सी दिखती है जिंदगी,
कभी उलझनों के जाले बुनती है जिंदगी......

कभी लगता है कि ये अपनी ही हो जैसे,
कभी गैरों सी अजनबी लगती है जिंदगी......

कभी झरनों  सा तूफान लगती है जिंदगी,
कभी नदी सी खामोश लगती है जिंदगी.......!!



मानव ‘मन’

Thursday, June 06, 2013

मुहब्बत का इत्र

















इस हवा के बदन पर मैंने 
अपनी मुहब्बत का इत्र छिड़का है .... 
और भेजा है तेरी ओर बंद लिफ़ाफे में भर कर ..... 

जब मिल जाए तो इसको 
धीरे से खोलना 
महसूस करना मेरी वफ़ा को 
और भर लेना साँसों में अपनी .... 

नई सुबह फिर से नया पैगाम भेजूँगा ....... 
तब तक अपने जिस्म को महकाए रखना इससे .... !!


'मन'


Friday, May 24, 2013

तुम्हारा एहसास




अभी अभी
पीपल की झड़ी पत्तियों को
एक तरफ रख कर
जला कर बैठा ही था कि
उसके धुएं में भी
तुम्हारा ही चेहरा नज़र आया
कल भी कुछ ऐसा ही हुआ था
जब रोशनदान से
सूरज की रोशनी
मेरे कमरे में पहुँची थी
तो लगा था
कि तुम आए हो
तुम हर जगह दिखती हो मुझको
तुम नहीं हो
पर...
हर वक़्त तुम्हारा एहसास
मेरे साथ रहता है...!!

मानव मेहता 'मन' 

Thursday, May 16, 2013

हाल-ए-जिन्दगी
















ना राह ना मंजिल, कुछ ना पाया जिन्दगी में
ना जाने कैसा मोड़ ये आया जिन्दगी में


तकलीफ,दर्द,चुभन,पीड़ा सब कुछ मिले इससे
फ़कत एक खुशी को ही ना पाया जिन्दगी में

वक़्त के मरहम ने सभी घाव तो भरे मेरे
मगर जख़्मों से बने दाग को पाया जिन्दगी में

औरों की खुशी के लिए अपनी खुशी भूल गए
मुस्कराते हुए अकसर गम छुपाया जिन्दगी में

तन्हाइयों को चीरती आवाज ना सुन सका कोई
इस कदर खुद को अकेला पाया जिन्दगी में..... 



मानव मेहता 'मन'

Friday, May 10, 2013

अल्फाज़











मेरे अल्फाज़ अब तुम मुझसे यूँ दगा ना करो
मैं जानता हूँ कि चंद महीनों से ,
मैंने कागज पर उतारा नहीं तुमको ...
एक मुद्दत से अपने जख्मों पर ,
तेरे नाम का मरहम नहीं रखा ...

मगर ऐ मेरे अल्फाज़
सब कसूर मेरा तो नहीं ....

तुमने भी तो कहाँ मेरे जेहन में आकर –
सोई हुई कविताओं को जगाया था कभी ....
और इन नज्मों की तारों को भी तो तुमने –
कभी थर-थराया नहीं था ....
जब कभी सर्द रातों में –
चाँदनी के आँगन टहलता था मैं –
तब भी तो तुम आते नहीं थे ...

और इक रोज जब उसके शहर मेरा जाना हुआ था –
तब कहाँ थे तुम ??
क्यूँ नहीं इक नज़्म बन कर –
उसके दरवाजे पर छूट आए थे तुम .......

खैर अब जो कागज कलम लिए बैठा हूँ मैं –
तो उतर आओ मेरे दिल के किसी कोने से –
इन पन्नों पर बिखर जाओ –
मेरे लहू के संग ...
चंद बातें कर लो मुझसे –
कि आज दिल उदास बहुत है ....!!


मानव मेहता ‘मन’ 

Thursday, May 02, 2013

रेस










इक ‘रेस’ सी लगी है मानो
दौड़ते जाते हैं सब एक दूसरे से आगे –

जाने सफर जिंदगी का मुकम्मल कब होगा !!


मानव मेहता ‘मन’ 

Friday, April 26, 2013

ऐ मेरे नाहिद












बाद-ए-अरसे तो तू मुझको मिला है ऐ मेरे नाहिद   
फिर यूँ ना कर तू मुझसे अब ये बेरुखी की बातें 

कि मेरे हालात तुझे खोने की गुंजाईश नहीं रखते !!


‘मन’
* नाहिद – प्रियवर,महबूब,प्रेयसी 

Saturday, April 20, 2013

प्यार के रंगों से सजी जिंदगी




जब से बा-रंग हुई है जिंदगी,
खुद को ढूँढता फिरता हूँ मैं...
न जाने किस ओर गुम हो गया हूँ मैं,
हो गर वाकिफ़ तो बताओ पहचान मेरी......

कुछ इस तरह से है ; कि जिंदगी में,
भर आया है इक प्यार का दरिया...
डूब गया हूँ शायद मैं इसमे,
या तैर रहा हूँ मौजे-सुखन में...
नहीं एहसास अब कोई
इक दर्द-ए-इश्क के सिवा.....

इक पल में ठहर गई थी वो शाम,
जब कोई मेरे सिरहाने में आकर
चुपचाप दबी आवाज में कुछ कह गया था....
मेरे दिल के ‘फसील’ में कोई,
बे-आवाज हो गया था दाखिल,
तब से ठहरी हुई सी है जिंदगी मेरी...
और रुका हुआ हूँ मैं,
बस इक उस अदद आवाज के सहारे...

तमाम फासले जो इक अदद से,
हमारे दरम्यान फैला चुके थे अपनी बाजुएँ,
कि अचानक गुम हो गये,
उस एक लहजा में .....

और मेरी बाहों में सिमट आई तभी से,
प्यार के रंगों से सजी जिंदगी ......!!



मानव मेहता ‘मन’

  

Wednesday, April 10, 2013

तेरा नाम





शाम ढली तो लेम्प के इर्द-गिर्द
कुछ अल्फाज़ भिन-भिनाने लगे.......
‘टेबल’ के ऊपर रखे मेरे ‘राईटिंग पेड’ के ऊपर-
उतर जाने को बेचैन थे सभी ......

कलम उठाई तो गुन-गुनाई एक नज़्म-
मूँद ली आँखें दो पल के लिए उसको सुनने की खातिर
हुबहू मिलती थी उससे –
एक अरसा पहले जिसे मैंने सुना था कभी ....

आँख खोली तो देखा –
कुछ हर्फ़ लिखे थे सफ्हे पर ...
महक रहे थे तेरा नाम बन कर
चमक रहे थे ठीक उसी तरह –
काली चादर पर आसमान की –
चंद मोती चमकते हैं जैसे ......

तेरा नाम सिर्फ तेरा नाम ना रह कर –
एक मुकम्मल नज़्म बन गई है देखो .....

इससे बेहतर कोई नज़्म ना सुनी कभी
ना लिखी कभी ....... !!

मानव मेहता 'मन'