मेरे अल्फाज़ अब तुम मुझसे यूँ दगा ना करो
मैं जानता
हूँ कि चंद महीनों से ,
मैंने
कागज पर उतारा नहीं तुमको ...
एक मुद्दत
से अपने जख्मों पर ,
तेरे नाम
का मरहम नहीं रखा ...
मगर ऐ
मेरे अल्फाज़
सब कसूर
मेरा तो नहीं ....
तुमने भी
तो कहाँ मेरे जेहन में आकर –
सोई हुई
कविताओं को जगाया था कभी ....
और इन
नज्मों की तारों को भी तो तुमने –
कभी
थर-थराया नहीं था ....
जब कभी
सर्द रातों में –
चाँदनी के
आँगन टहलता था मैं –
तब भी तो
तुम आते नहीं थे ...
और इक रोज
जब उसके शहर मेरा जाना हुआ था –
तब कहाँ
थे तुम ??
क्यूँ
नहीं इक नज़्म बन कर –
उसके
दरवाजे पर छूट आए थे तुम .......
खैर अब जो
कागज कलम लिए बैठा हूँ मैं –
तो उतर आओ
मेरे दिल के किसी कोने से –
इन पन्नों
पर बिखर जाओ –
मेरे लहू
के संग ...
चंद बातें
कर लो मुझसे –
कि आज दिल
उदास बहुत है ....!!
मानव
मेहता ‘मन’