मैले
कुचैले कपड़ों में लिपटी
एक
बूढ़ी औरत
सर
से लेकर पाँव तक झुकी हुई
एक
वक्त की रोटी भी नसीब नहीं जिसको
हाथ
बाए खड़ी है चौराहे पर
पेट
भरने के लिए
मांगती
है भीख |
मुरझाई
हुई सी
इन बूढ़ी आँखों को
चंद
सिक्कों के आलावा
तलाश
है कुछ और |
झाँका
करती है अक्सर
आते
जाते लोगों के चेहरों में
ढूँढा
करती है उस शख्स को
जो
पिछले बरस कह के गया था
‘माँ,
तुम यहीं रुको, मैं बस अभी आया |’
मानव 'मन'