I have share best Romantic Hindi Poetry. Best Romantic Hindi Poetry is the one of the Best Destination of Hindi Shayari
Monday, January 06, 2014
Tuesday, November 19, 2013
जुगलबंदी.... :)
कल मैंने मेरी बड़ी बहन समान नीलीमा शर्मा जी के इनबॉक्स में कुछ लिखा कि दीदी देखो कैसा लिखा हम दोनों अक्सर इस तरह अपना लिखा एक दुसरे को दिखाते रहते हैं फिर क्या जुगलबंदी हुयी आपकी नजर पेश हैं ..............~~
तुमने सुना तो होगा
जब चलती हैं तेज़ हवाएं
फड़फड़ा उठता है
सोया हुआ शजर
बासी से कुछ मुरझाये हुए से पत्ते
छोड़ देते हैं साथ
दिये कई तोड़ देते हैं दम
जब चलती हैं तेज़ हवाएं
बर्बाद हो जाता है सब कुछ
इक रोज़ इक ऐसे ही
तेज़ हवा में
बुझ गया था -
मेरा भी इक रिश्ता....!! मानव मेहता शिवी
~~~~~~~~~~~~~~~~
न तेज हवा चली थी /
न कोई तूफ़ान आया था /
न हमने कोई आसमा सर पर उठाया था /
हम जानते थे ना /
हमारा रिश्ता नही पसंद आएगा /
हमारे घर के ठेकेदारों को /
जिनके लिय अपने वजूद का होना लाजिमी था /
हमारी कोमल भावनाओ से इतर /
और हम दोनों ने सिसक कर /
भीतर भीतर चुपके से /
तोड़ दिया था अपना सब कुछ /
बिना एक भी लफ्ज़ बोले /
मैंने तेरा पहना कुरता मुठी मैं दबा कर /
तुमने मेरी लाल चुन्नी सितारों वाली /
जो आज भी सहेजी हैं दोनों ने /
अपने अपने कोने की अलमारी के /
भीतर वाले कोने में........... नीलिमा शर्मा निविया
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
मुझे याद तो नहीं शोना
पर जब से तुम गयी हो
लगभग हर रात
अपनी अलमारी खोल कर
देखता हूँ उस लाल रंग के
सितारों वाले दुप्पट्टे को
जो तेरी इक आखरी सौगात
मेरे पास छोड़ गए थे तुम
तुम नहीं मगर तुम्हारा एहसास
आज भी उस दुप्पट्टे में
वाबस्ता है...
मैं आज भी इसमें लिपटी हुई
मेरी मोहब्बत को देखता हूँ...
मुझे याद तो नहीं शोना
पर जब से तुम गयी हो
ज़िन्दगी घुल सी गयी है लाल रंग में मेरी... Manav Shivi Mehta
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
तुम्हारा वोह सफ़ेद कुरता
आज भी रखा हैं कोने में
अलमारी के
जहाँ मैं सहेजती हूँ यादे अपनी
और जब अकेली होती हूँ न
अपने इस कोहबर में ,
तो पहन कर वोह सफ़ेद कुरता
महसूस करती हूँ तुम्हे
अपने बहुत करीब
तुम्हारी आखिरी सफ़ेद निशानी
जो छीन कर ली थी मैंने तुमसे
उसमें वोह अहसास भी जुड़े हैं तेरे - मेरे
जो हमने जिए तो नही
फिर भी कई बार महसूस जरुर किये हैं
सुनो शोना
अब मेरी जिन्दगी पहले जैसे रंगीन नही रही
शांत रहना सीख लिया मैंने
तेरे कुरते के सफ़ेद रंग की तरह .................... नीलिमा शर्मा
तुमने सुना तो होगा
जब चलती हैं तेज़ हवाएं
फड़फड़ा उठता है
सोया हुआ शजर
बासी से कुछ मुरझाये हुए से पत्ते
छोड़ देते हैं साथ
दिये कई तोड़ देते हैं दम
जब चलती हैं तेज़ हवाएं
बर्बाद हो जाता है सब कुछ
इक रोज़ इक ऐसे ही
तेज़ हवा में
बुझ गया था -
मेरा भी इक रिश्ता....!! मानव मेहता शिवी
~~~~~~~~~~~~~~~~
न तेज हवा चली थी /
न कोई तूफ़ान आया था /
न हमने कोई आसमा सर पर उठाया था /
हम जानते थे ना /
हमारा रिश्ता नही पसंद आएगा /
हमारे घर के ठेकेदारों को /
जिनके लिय अपने वजूद का होना लाजिमी था /
हमारी कोमल भावनाओ से इतर /
और हम दोनों ने सिसक कर /
भीतर भीतर चुपके से /
तोड़ दिया था अपना सब कुछ /
बिना एक भी लफ्ज़ बोले /
मैंने तेरा पहना कुरता मुठी मैं दबा कर /
तुमने मेरी लाल चुन्नी सितारों वाली /
जो आज भी सहेजी हैं दोनों ने /
अपने अपने कोने की अलमारी के /
भीतर वाले कोने में........... नीलिमा शर्मा निविया
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
मुझे याद तो नहीं शोना
पर जब से तुम गयी हो
लगभग हर रात
अपनी अलमारी खोल कर
देखता हूँ उस लाल रंग के
सितारों वाले दुप्पट्टे को
जो तेरी इक आखरी सौगात
मेरे पास छोड़ गए थे तुम
तुम नहीं मगर तुम्हारा एहसास
आज भी उस दुप्पट्टे में
वाबस्ता है...
मैं आज भी इसमें लिपटी हुई
मेरी मोहब्बत को देखता हूँ...
मुझे याद तो नहीं शोना
पर जब से तुम गयी हो
ज़िन्दगी घुल सी गयी है लाल रंग में मेरी... Manav Shivi Mehta
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तुम्हारा वोह सफ़ेद कुरता
आज भी रखा हैं कोने में
अलमारी के
जहाँ मैं सहेजती हूँ यादे अपनी
और जब अकेली होती हूँ न
अपने इस कोहबर में ,
तो पहन कर वोह सफ़ेद कुरता
महसूस करती हूँ तुम्हे
अपने बहुत करीब
तुम्हारी आखिरी सफ़ेद निशानी
जो छीन कर ली थी मैंने तुमसे
उसमें वोह अहसास भी जुड़े हैं तेरे - मेरे
जो हमने जिए तो नही
फिर भी कई बार महसूस जरुर किये हैं
सुनो शोना
अब मेरी जिन्दगी पहले जैसे रंगीन नही रही
शांत रहना सीख लिया मैंने
तेरे कुरते के सफ़ेद रंग की तरह .................... नीलिमा शर्मा
Friday, November 01, 2013
शौक
शौक...
बस शौक ही था तुम्हें
हवाओं पे पैर रख कर
आसमान पे चलने का...
तेज़ तेज़ क़दमों से
चल कर
जाने किस मंजिल
पर पहुँचना था तुम्हें...
बस शौक ही था तुम्हें
हवाओं पे पैर रख कर
आसमान पे चलने का...
तेज़ तेज़ क़दमों से
चल कर
जाने किस मंजिल
पर पहुँचना था तुम्हें...
तुम ऐसे उड़े
कि सब रिश्ते हवा हो गए...
गुजारी थी उम्र जिनके सहारे
और सहारा बनना था जिनका
इस उम्र में...
कि सब रिश्ते हवा हो गए...
गुजारी थी उम्र जिनके सहारे
और सहारा बनना था जिनका
इस उम्र में...
अभी तुम्हारी उम्र ही क्या थी
बस ये शौक
हवा से तेज़ दौड़ने का
तुम्हें जुदा कर गया खुद से...
ले गया बहुत दूर
तुम्हें तुम्हारे अपनों से.....!!
मानव मेहता 'मन'
बस ये शौक
हवा से तेज़ दौड़ने का
तुम्हें जुदा कर गया खुद से...
ले गया बहुत दूर
तुम्हें तुम्हारे अपनों से.....!!
मानव मेहता 'मन'
(दोस्त के cousin के शरीर को अभी अभी दाग दे कर आया... तेज़ बाइक और सामने से ट्रक... उम्र 17 साल)
Thursday, October 17, 2013
मनचाहे...ख़ामोश अक्षर
पंजाबी नज़्म और उसका हिंदी में अनुवाद...
ਤੇਰੀ ਖਾਮੋਸ਼ੀ ਦੇ ਇੱਕ ਇੱਕ ਅਖੱਰ
ਮੈਂਨੂੰ ਵਾਜਾਂ ਮਾਰਦੇ ਨੇ, ਬੁਲਾਓਂਦੇ ਨੇ
ਤੇ ਮੈਂ ਵੀ ਇਹਨਾਂ ਦੇ ਨਾਲ
ਗੱਲਾਂ ਕਰਦੀ ਕਮਲੀ ਹੋਈ ਫਿਰਦੀ ਹਾਂ ...
ਰਾਤ ਦੀ ਕਾਲੀ ਚਾੱਦਰ ਉਤੇੱ
ਮੈਂ ਰੋਜ਼ ਬਿਛੌਂਦੀ ਹਾਂ ਇਹਨਾਂ ਅੱਖਰਾਂ ਨੂੰ
ਪੁਛੱਦੀ ਹਾਂ ਤੇਰਾ ਹਾਲ
ਕੁੱਝ ਅਪਣਾ ਸੁਨਾਨੀ ਹਾਂ ...
ਤੇ ਇਹ ਅੱਖਰ ਮੈਨੂੰ, ਮੇਰੀ ਬਾਂਹ ਫੜ ਕੇ
ਲੈ ਜਾਂਦੇ ਨੇ ਦੂਰ ਅਜਿਹੇ ਅੰਬਰਾਂ ਚ
ਜਿਥੇ ਤੇਰਾ ਤੇ ਮੇਰਾ ਰਿਸ਼ਤਾ
ਮੇਰੀ ਸੋਚ ਦੇ ਮਾਫਿਕ ਮਿਲਦਾ ਏ ਮੈਨੂੰ ...
ਤੇ ਮੈਂ ਤੇਰੇ ਇਹਨਾਂ ਅੱਖਰਾਂ ਨਾਲੋਂ ਸੁਨ ਲੈਨੀ ਹਾਂ
ਅਪਣਾ ਮਨਚਾਹਾ.....
ਮੈਂਨੂੰ ਵਾਜਾਂ ਮਾਰਦੇ ਨੇ, ਬੁਲਾਓਂਦੇ ਨੇ
ਤੇ ਮੈਂ ਵੀ ਇਹਨਾਂ ਦੇ ਨਾਲ
ਗੱਲਾਂ ਕਰਦੀ ਕਮਲੀ ਹੋਈ ਫਿਰਦੀ ਹਾਂ ...
ਰਾਤ ਦੀ ਕਾਲੀ ਚਾੱਦਰ ਉਤੇੱ
ਮੈਂ ਰੋਜ਼ ਬਿਛੌਂਦੀ ਹਾਂ ਇਹਨਾਂ ਅੱਖਰਾਂ ਨੂੰ
ਪੁਛੱਦੀ ਹਾਂ ਤੇਰਾ ਹਾਲ
ਕੁੱਝ ਅਪਣਾ ਸੁਨਾਨੀ ਹਾਂ ...
ਤੇ ਇਹ ਅੱਖਰ ਮੈਨੂੰ, ਮੇਰੀ ਬਾਂਹ ਫੜ ਕੇ
ਲੈ ਜਾਂਦੇ ਨੇ ਦੂਰ ਅਜਿਹੇ ਅੰਬਰਾਂ ਚ
ਜਿਥੇ ਤੇਰਾ ਤੇ ਮੇਰਾ ਰਿਸ਼ਤਾ
ਮੇਰੀ ਸੋਚ ਦੇ ਮਾਫਿਕ ਮਿਲਦਾ ਏ ਮੈਨੂੰ ...
ਤੇ ਮੈਂ ਤੇਰੇ ਇਹਨਾਂ ਅੱਖਰਾਂ ਨਾਲੋਂ ਸੁਨ ਲੈਨੀ ਹਾਂ
ਅਪਣਾ ਮਨਚਾਹਾ.....
तेरी ख़ामोशी के एक एक अक्षर
मुझे आवाज़ लगाते हैं, बुलाते हैं
और मैं भी इनके साथ
बातें करती पागल हुई फिरती हूँ
रात की काली चादर पर
मैं रोज़ बिछाती हूँ इन अक्षरों को
पूछती हूँ तेरा हाल
कुछ अपना सुनाती हूँ
और ये अक्षर मुझे मेरी बांह पकड़ कर
ले जाते हैं दूर ऐसे आसमान में
जहाँ तेरा और मेरा रिश्ता
मेरी सोच के मुताबिक मिलता है मुझे...
और मैं तेरे अक्षरों के साथ सुन लेती हूँ
अपना मनचाहा.......!!
मानव मेहता 'मन'
मुझे आवाज़ लगाते हैं, बुलाते हैं
और मैं भी इनके साथ
बातें करती पागल हुई फिरती हूँ
रात की काली चादर पर
मैं रोज़ बिछाती हूँ इन अक्षरों को
पूछती हूँ तेरा हाल
कुछ अपना सुनाती हूँ
और ये अक्षर मुझे मेरी बांह पकड़ कर
ले जाते हैं दूर ऐसे आसमान में
जहाँ तेरा और मेरा रिश्ता
मेरी सोच के मुताबिक मिलता है मुझे...
और मैं तेरे अक्षरों के साथ सुन लेती हूँ
अपना मनचाहा.......!!
मानव मेहता 'मन'
Saturday, October 05, 2013
Monday, September 30, 2013
Saturday, September 21, 2013
....हांसिल.... (लघु कथा)
तुम... तुम तो चली गयी थी ना... फिर कैसे आई हो तुम... क्यूँ आई हो तुम... तुम्हे मेरे सामने आने में ज़रा भी हिचकिचाहट नहीं हुई?... क्या देखने आई हो तुम भला... यही ना कि तुम्हारे बिना कैसे जी रहा हूँ मैं... या ये देखने आई हो कि कितना मर चुका हूँ तुम्हारे न होने पर... तुम खामोश क्यूँ हो... अब जुबां पर ख़ामोशी कैसे रख ली तुमने... तुम तो ऐसी न थी... तुम तो बेबात मुझे कोसती ही रहती थी... सारा दिन बिना बात पर मुझसे झगड़ा करना तुम्हारी फितरत में शुमार था... अब क्यों खामोश हो... चीखो... चिल्लाओ... गालियाँ दो मुझे... फिर एक बार मुझे बुरा भला कहो... आखिर तुम यही तो करती आई हो हर बार...
अँधेरे में बने एक साए को देख कर राजेश बोलता ही जा रहा था... लम्बी ख़ामोशी के बाद भी जब कोई जवाब न मिला तो उसने कमरे की बत्ती जला दी... मगर वहां कोई नहीं था... था तो सिर्फ वो, उसका ग़म, और उसकी तन्हाई... और खुद को संभाले रखने के लिए एक बोतल शराब... आखिर यही तो हांसिल था उसका इस ज़िन्दगी में... रजनी को खो कर यही सामान तो जुटा पाया था राजेश...
Friday, August 23, 2013
चाँद और तेरी महक
रात भर झांकता रहा चाँद
मेरे दिल के आँगन में.......
कभी रोशनदान से
तो कभी चढ़ कर मुंडेरों पे
कोशिश करता रहा
मेरे अंदर तक समाने की.....
जाने क्या ढूँढ रहा था
गीली मिट्टी में...!!
तेरी यादों को तो मैंने
संभाल के रख दिया था
इक संदूक में अरसा पहले......
फिर भी न जाने कैसे
उसे उनकी महक आ गई...
चलो अब यूँ करें कि
आज दिल के सारे खिड़की-दरवाजे
बंद करके सोयें
कहीं आज फिर
चुरा न ले वो तुझे मुझसे......!!
Manav Mehta 'मन'
Saturday, August 10, 2013
माँ, तुम यहीं रुको, मैं बस अभी आया |
मैले
कुचैले कपड़ों में लिपटी
एक
बूढ़ी औरत
सर
से लेकर पाँव तक झुकी हुई
एक
वक्त की रोटी भी नसीब नहीं जिसको
हाथ
बाए खड़ी है चौराहे पर
पेट
भरने के लिए
मांगती
है भीख |
मुरझाई
हुई सी
इन बूढ़ी आँखों को
चंद
सिक्कों के आलावा
तलाश
है कुछ और |
झाँका
करती है अक्सर
आते
जाते लोगों के चेहरों में
ढूँढा
करती है उस शख्स को
जो
पिछले बरस कह के गया था
‘माँ,
तुम यहीं रुको, मैं बस अभी आया |’
मानव 'मन'
Monday, July 29, 2013
लम्हों का सफर
मेरे जिस्म से निकला है
लावा
इक शोला बैठ गया है छिप
कर -
रूह के पिछले हिस्से में
इक खला सी बस गयी है
......
ना उदासी है ना हैरानी
है
न ख़ामोशी , न तन्हाई
सीला सा मौसम है बस...!
न धूप है ना बारिश
बस चिपचिपे से लम्हें
बरसते जाते हैं बादलों
से ....
मैं बचते बचाते ; इन लम्हों से
धकेलता हुआ पीछे
बढ़ता जाता हूँ बादलों की
ओर ...
इसी एक बादल पर पाँव रख
कर
मैं उस पार उतर जाऊँगा
..
बस कुछ ही लम्हों में -
इस जहाँ से गुजर जाऊँगा ...!!
मानव मेहता 'मन'
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