बहुत देर हुई,
होंठों पे नज़्म का ज़ायका महसूस किए
ख़ामोशी कब्र सी ना जाने कब से बिखरी है..
रातें देर तक ऊँघती हैं,
पड़ी रहती है छत पर सितारे ओढ़े
मगर इन सितारों में भी अब कोई चेहरा नहीं बनता
कोई नज़्म कोई ख़याल दिल में नहीं आता |
दिन बूढ़ा सा खस्ता सी हालत में
आता है .. चला जाता है
मायूस सी सर्द हवाएं जर्द पत्तों को
उड़ा ले जाती है बहुत दूर ऐसे
कि शाखों पे भी अब कोई नहीं बसता |
मेरा ‘मन’ सिमट के रह गया है
एक छोटे से दायरे में
जैसे एक्वेरियम में मछलियाँ...
भागती हैं – दौड़ती हैं
और फिर सिमट जाती हैं खुद में
मेरा ‘मन’ ठीक वैसे सिमट गया है
अपने ही अंदर
ज़ज्बात और ख़यालात उतरते नहीं कागज़ पर
बहुत देर हुई –
होंठों पे नज़्म का ज़ायका महसूस किये ...!!
मानव ‘मन’
शानदार 👌
ReplyDeleteवाह ! बहुत ही खूबसूरत ! भावना प्रधान एवं दिल को छूती हुई कोमल सी रचना !
ReplyDeletehttp://bulletinofblog.blogspot.in/2017/02/blog-post_28.html
ReplyDeleteबहुत ख़ूबसूरत और भावपूर्ण नज़्म ...
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" शुक्रवार 03 मार्च 2017 को लिंक की गई है.... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteबहुत खूब ... कमाल की नज़्म बन पड़ी है लम्बी तन्हाई के बाद ...
ReplyDeleteशब्द अपनी बात कह ही जाते हैं ... स्वागत है आपका ...
बहुत जायकेदार नज्म !
ReplyDeleteसुन्दर । लगातार लिखते रहें और ब्लॉग पर पोस्ट भी करते रहें ।
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर प्रस्तुति :)
ReplyDeleteबहुत दिनों बाद आना हुआ ब्लॉग पर प्रणाम स्वीकार करें
gazab....
ReplyDeletefor those love birds who are falling in love
DeleteCheck out this post… "...एतबार...".
http://vvip09.blogspot.com/2020/05/blog-post.html