कुछ रोज पहले ही तो-
दफ़नाया था तुझको...
मकान के पिछले लॉन में.....
मिट्टी की जगह डाले थे,
कुछ लम्हें अफसुर्दगी के-
और अपनी आँखों का खरा पानी भी-
छिड़का था उस पर ...
छिड़का था उस पर ...
और सबसे ऊपर अपने ज़ख्मों का-
बड़ा सा पत्थर भी रख छोड़ा था उस पर....
सोचा था जिंदगी अब से आसान गुजरेगी....
हुं.....!!!
वहम था मेरा.....
भला नाखूनों से भी माँस जुदा हुआ है कभी....
कल रात उस जगह-
इक पौधा उग आया है फिर से...
इक पौधा उग आया है फिर से...
कल रात से दर्द अब फिर से मेरे साथ है.....!!!
:- मानव मेहता 'मन'
वाह जी सुंदर है
ReplyDeleteShukriya...:)
Deletesunder abhivyakti.
ReplyDeleteShukriya.... :)
Deleteदर्द कहाँ दफ़न हो पाता है ... उग आता है बार बार ...
ReplyDeleteगहरे भाव लिए ...
Bilkul....
Deleteकहाँ दफ़न होता है दर्द कहीं दफ़नाने से...गर ऐसा होता तो क्या बात थी..।
ReplyDeleteAchhaa...!!
Deleteआपकी पोस्ट कल के चर्चा मंच पर है
ReplyDeleteआभार
Shukriya janab... :))
Deleteबेह्तरीन अभिव्यक्ति .शुभकामनायें.
ReplyDeleteDhanywaad Madan mohan ji... !!
Deleteजब तक ज़िंदगी की मिट्टी उपजाऊँ है तब तक दर्द के पौधों का उगना जारी रहेगा। गहन भाव अभिव्यक्ति...
ReplyDeleteआह...बहुत खूब है ये दर्द भी
ReplyDeleteshukriya Rashmi ji... :)
ReplyDelete
ReplyDeleteकल दिनांक25/03/2013 को आपकी यह पोस्ट http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर लिंक की जा रही हैं.आपकी प्रतिक्रिया का स्वागत है .
धन्यवाद!
क्या कहूं ...हर शब्द की टीस महसूस हुई
ReplyDelete