उम्र गुज़री थी, जिस आशियाने को सजाने में,
वही आशियाना मेरा, जल कर तबाह हुआ....
न जाने किस बात की सज़ा मिली मुझको,
न जाने कौन सा ऐसा, मुझसे गुनाह हुआ....
कतरा कतरा जोड़ कर, जो खुशियाँ समेटी थीं,
उन्ही खुशियों का तमाशा सरे राह हुआ...
जाने किस मोड़ से तेरा साथ छूट गया,
जाने किस मोड़ से दर्द-ओ-ग़म हमराह हुआ...
आस्ताने-यार तक पहुँच पाना मुनासिब नहीं लगता,
आ पड़ा पैरों में, वही मंजिले-गुज़रगाह हुआ...
है ज़माने की चाल बड़ी अजब क्या जानिये,
जो आफ़ताब हुआ करता था कभी, आज गर्दे-राह हुआ....
मानव मेहता
मानव मेहता
भाई वाह..बहुत ही बढ़िया ग़ज़ल ...
ReplyDeleteआभार .....
अल्फाजों के साथ इंसाफ किया है, शुभकामनायें
ReplyDeleteवाह बहुत खूब। लाजवाब। बधाई।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर.....दर्द लफ़्जों से पन्नों पर उतर आया है...............
ReplyDeleteचर्चा मंच के साप्ताहिक काव्य मंच पर आपकी रचना 14 - 9 - 2010 मंगलवार को ली गयी है ...
ReplyDeleteकृपया अपनी प्रतिक्रिया दे कर अपने सुझावों से अवगत कराएँ ...शुक्रिया
http://charchamanch.blogspot.com/
शब्दों का सटीक चयन...अच्छी रचना
ReplyDeletea rythm of words in this ghazal..
ReplyDeletenice work. aapki agli ghazal ka yakeenan intezar rahega
Bahut khoob. Dil ka dard shabdon me simat kar aaya hai bahar.
ReplyDeleteआप सभी महानुभावों का बहुत बहुत शुक्रिया इस रचना को पसंद करने के लिए.....उम्मीद है आगे भी आप सभी इसी तरह अपना प्यार और आशीर्वाद देते रहेंगे..
ReplyDeleteजाने किस मोड़ से तेरा साथ छूट गया,जाने किस मोड़ से दर्द-ओ-ग़म हमराह हुआ...वाह वाह बहुत खूब लिखा है आपने हर शेर
ReplyDeleteमानव जी बहुत अच्छी नज़्म कही है ....वाह ......!!
ReplyDeleteबहुत खूब ....!!