मैंने एक गुल्लक बनाई हुई है
अक्सर तेरे लफ़्ज़ों से
भरता रहा हूँ इसको...
तू जब भी मिलती थी मुझसे
बात करती थी
तो भर जाती थी ये...
ख़ुशनुमा, रुआंसे, उदास, तीखे
मोहब्बत भरे...
हर तरह के लफ्ज़
भरे हुए हैं इसमें...
अब जबकि मैं,
तुझसे बिछड़ कर तन्हा रहता हूँ __
निकाल कर इन्हें खर्च करता हूँ...
नज़्म बुन लेता हूँ,
और सुन लेता हूँ --
तेरे लफ़्ज़ों से
अपना 'मनचाहा'...!!!
~ मानव 'मन'
~ मानव 'मन'
अच्छा हैं
ReplyDeleteशुक्रिया दीपिका...
Deleteवाह!!!
ReplyDeleteबहुत लाजवाब...बहुत खूब लिखा है आपने
धन्यवाद संजय जी।
Deleteवाह !बेहतरीन सृजन
ReplyDeleteशुक्रिया अनिता जी।
Deleteजी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा सोमवार ( 06 - 03-2020) को "मिट्टी सी निरीह" (चर्चा अंक - 3632) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
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अनीता लागुरी"अनु"
शुक्रिया अनिता जी...
Deleteबहुत सुन्दर और सार्थक।
ReplyDeleteलाजवाब सृजन।
ReplyDeleteवाह!!!
ReplyDeleteबहुत सुन्दर...