Friday, September 16, 2011

चाक है सीना जख्मों से..........


"मैंने ज़िन्दगी को नहीं, ज़िन्दगी ने मुझे जिया लगता है,
एक अजीब सा खारापन, आँखों ने 'पिया' लगता है...

एक उम्र से मैं अपनी ज़िन्दगी की तलाश में हूँ,
ये जीवन तो जैसे, किसी से, उधार 'लिया' लगता है...

ख्वाहिशों  के फूल मुरझा गए मेरे जेहन के अन्दर ही,
चाक है सीना जख्मों से, फिर भी 'सिया' लगता है...

अंधेरापन ही मेरी ज़िन्दगी को रास आ गया है शायद,
मेरी नज़रों को चुभता हुआ सा, अब हर 'दिया' लगता है..."

       
                                                                              मानव मेहता 

11 comments:

  1. ख्वाहिशों के फूल मुरझा गए मेरे जेहन के अन्दर ही,
    चाक है सीना जख्मों से, फिर भी 'सिया' लगता है...

    खूबसूरत गज़ल ...

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  2. बहुत बेहतरीन, मानव....बढ़िया लगा.

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  3. एक उम्र से मैं अपनी ज़िन्दगी की तलाश में हूँ,ये जीवन तो जैसे, किसी से, उधार 'लिया' लगता है...kamaal ke ehsaas

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  4. बहुत खूब मानव जी ... गहरी बात लिखी है ...

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  5. ख्वाहिशों के फूल मुरझा गए मेरे जेहन के अन्दर ही,
    चाक है सीना जख्मों से, फिर भी 'सिया' लगता है...
    गहरे उतरते शब्‍द ...बेहतरीन लेखन ।

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  6. You write beautifully, glad to find you on Indiblogger...

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  7. बहुत सुन्दर एहसास....
    गहरे उतरते शब्‍द ...

    चाक है सीना जख्मों से,फिर भी'सिया'लगता है..!

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आपकी टिपणी के लिए आपका अग्रिम धन्यवाद
मानव मेहता