"मैंने ज़िन्दगी को नहीं, ज़िन्दगी ने मुझे जिया लगता है,
एक अजीब सा खारापन, आँखों ने 'पिया' लगता है...
एक उम्र से मैं अपनी ज़िन्दगी की तलाश में हूँ,
ये जीवन तो जैसे, किसी से, उधार 'लिया' लगता है...
ख्वाहिशों के फूल मुरझा गए मेरे जेहन के अन्दर ही,
चाक है सीना जख्मों से, फिर भी 'सिया' लगता है...
अंधेरापन ही मेरी ज़िन्दगी को रास आ गया है शायद,
मेरी नज़रों को चुभता हुआ सा, अब हर 'दिया' लगता है..."
मानव मेहता
Khoob....Gahre arth liye Behtreen Panktiyan
ReplyDeleteख्वाहिशों के फूल मुरझा गए मेरे जेहन के अन्दर ही,
ReplyDeleteचाक है सीना जख्मों से, फिर भी 'सिया' लगता है...
खूबसूरत गज़ल ...
bahut sundar manav...
ReplyDeleteबहुत बेहतरीन, मानव....बढ़िया लगा.
ReplyDeleteएक उम्र से मैं अपनी ज़िन्दगी की तलाश में हूँ,ये जीवन तो जैसे, किसी से, उधार 'लिया' लगता है...kamaal ke ehsaas
ReplyDeleteबहुत खूब मानव जी ... गहरी बात लिखी है ...
ReplyDeleteख्वाहिशों के फूल मुरझा गए मेरे जेहन के अन्दर ही,
ReplyDeleteचाक है सीना जख्मों से, फिर भी 'सिया' लगता है...
गहरे उतरते शब्द ...बेहतरीन लेखन ।
You write beautifully, glad to find you on Indiblogger...
ReplyDeletehar sher umdaaygi ki misal hai.
ReplyDeleteबहुत खूब, लाजबाब !
ReplyDeleteबहुत सुन्दर एहसास....
ReplyDeleteगहरे उतरते शब्द ...
चाक है सीना जख्मों से,फिर भी'सिया'लगता है..!