Sunday, March 01, 2020

किसी की याद में



जाने कहां गई वो शाम ढलती बरसातें
हाथों में हाथ डाल जब दोनों भीगा करते थे
जाने कहाँ गए वो सावन के झूले
इक साथ बैठ जब दोनों झूला करते थे
अब तो बस तन्हाई है और तेरी यादों का साथ
जाने कहाँ गए वो लम्हें जो तेरे साथ बीता करते थे

वो लिखना मेरा कागज़ पे गज़लें
और कागज़ की तुम किश्ती बनाया करते थे
याद है मुझे वो अपनी हर इक बात
जिस बात पर तुम मुस्कराया करते थे

लौट आओ वापिस कि मुझे जरूरत है उस हाथ की
जिसकी अँगुलियों से तुम मेरे होंठ चूमा करते थे
बुला रही है तुमको वो मेरी गज़लें
जिन गज़लों को तुम गुनगुनाया करते थे

लौट आओ उन फूलों की खातिर
मेरी किताबों में जिन्हें तुम प्यार से सजाया करते थे
दे रही सदा अब उस दिल की धड़कन तुमको
जिस दिल को कभी तुम दिल में बसाया करते थे !!


मानव मेहता ‘मन’ 

Tuesday, February 28, 2017

नज़्म का ज़ायका





















बहुत देर हुई,
होंठों पे नज़्म का ज़ायका महसूस किए
ख़ामोशी कब्र सी ना जाने कब से बिखरी है..
रातें देर तक ऊँघती हैं,
पड़ी रहती है छत पर सितारे ओढ़े
मगर इन सितारों में भी अब कोई चेहरा नहीं बनता
कोई नज़्म कोई ख़याल दिल में नहीं आता |
दिन बूढ़ा सा खस्ता सी हालत में
आता है .. चला जाता है
मायूस सी सर्द हवाएं जर्द पत्तों को
उड़ा ले जाती है बहुत दूर ऐसे
कि शाखों पे भी अब कोई नहीं बसता |

मेरा ‘मन’ सिमट के रह गया है
एक छोटे से दायरे में
जैसे एक्वेरियम में मछलियाँ...
भागती हैं – दौड़ती हैं
और फिर सिमट जाती हैं खुद में
मेरा ‘मन’   ठीक वैसे सिमट गया है
अपने ही अंदर
ज़ज्बात और ख़यालात उतरते नहीं कागज़ पर
बहुत देर हुई –
होंठों पे नज़्म का ज़ायका महसूस किये ...!!

मानव ‘मन’