Saturday, October 05, 2013

सागर की लहरें

हर बार
आती हुई लहर
मुझे छू कर
ले जाती है मुझसे
मेरा थोड़ा सा
हिस्सा_
दूर कहीं सागर में
छोड़ देती है...

कतरा कतरा
हर बार
यूँ ही बिखरते हुए
समा जाऊंगा इसमें!!
सारे का सारा...

और दूर
जहाँ मिल रहे है
सागर और आकाश
एक दूजे में....
मैं भी
वहीँ कहीं
हो जाऊंगा विलीन
....!


मानव मेहता 'मन' 


Monday, September 30, 2013

लफ्ज़

लफ्ज़ दिल का आईना होते हैं
दिल खुशगवार हो तो
खुशबू से बिखरते है लफ्ज़
और निखर आती है खुशनुमा पेंटिंग...

और दिल गर उदास हो तो
लफ्ज़ दर्द में भीगे से
कुछ यूँ उतरते हैं कागज़ पर
कि जैसे 'मोनालिसा का उदास चेहरा'...!!




Saturday, September 21, 2013

....हांसिल.... (लघु कथा)

तुम... तुम तो चली गयी थी ना... फिर कैसे आई हो तुम... क्यूँ आई हो तुम... तुम्हे मेरे सामने आने में ज़रा भी हिचकिचाहट नहीं हुई?... क्या देखने आई हो तुम भला... यही ना कि तुम्हारे बिना कैसे जी रहा हूँ मैं... या ये देखने आई हो कि कितना मर चुका हूँ तुम्हारे न होने पर... तुम खामोश क्यूँ हो... अब जुबां पर ख़ामोशी कैसे रख ली तुमने... तुम तो ऐसी न थी... तुम तो बेबात मुझे कोसती ही रहती थी... सारा दिन बिना बात पर मुझसे झगड़ा करना तुम्हारी फितरत में शुमार था...  अब क्यों खामोश हो... चीखो... चिल्लाओ... गालियाँ दो मुझे... फिर एक बार मुझे बुरा भला कहो... आखिर तुम यही तो करती आई हो हर बार...
अँधेरे में बने एक साए को देख कर राजेश बोलता ही जा रहा था... लम्बी ख़ामोशी के बाद भी जब कोई जवाब न मिला तो उसने कमरे की बत्ती जला दी... मगर वहां कोई नहीं था... था तो सिर्फ वो, उसका ग़म, और उसकी तन्हाई... और खुद को संभाले रखने के लिए एक बोतल शराब... आखिर यही तो हांसिल था उसका इस ज़िन्दगी में... रजनी को खो कर यही सामान तो जुटा पाया था राजेश...



Friday, August 23, 2013

चाँद और तेरी महक









रात भर झांकता रहा चाँद
मेरे दिल के आँगन में.......
कभी रोशनदान से
तो कभी चढ़ कर मुंडेरों पे
कोशिश करता रहा
मेरे अंदर तक समाने की.....

जाने क्या ढूँढ रहा था
गीली मिट्टी में...!!

तेरी यादों को तो मैंने
संभाल के रख दिया था
इक संदूक में अरसा पहले......

फिर भी न जाने कैसे
उसे उनकी महक आ गई...

चलो अब यूँ करें कि
आज दिल के सारे खिड़की-दरवाजे
बंद करके सोयें
कहीं आज फिर
चुरा न ले वो तुझे मुझसे......!! 



Manav Mehta 'मन'

Saturday, August 10, 2013

माँ, तुम यहीं रुको, मैं बस अभी आया |












मैले कुचैले कपड़ों में लिपटी
एक बूढ़ी औरत
सर से लेकर पाँव तक झुकी हुई
एक वक्त की रोटी भी नसीब नहीं जिसको
हाथ बाए खड़ी है चौराहे पर
पेट भरने के लिए
मांगती है भीख |

मुरझाई हुई सी
इन बूढ़ी आँखों को
चंद सिक्कों के आलावा
तलाश है कुछ और |

झाँका करती है अक्सर
आते जाते लोगों के चेहरों में
ढूँढा करती है उस शख्स को
जो पिछले बरस कह के गया था
‘माँ, तुम यहीं रुको, मैं बस अभी आया |’


मानव 'मन' 

Monday, July 29, 2013

लम्हों का सफर















रुखसत होने को अब चंद ही लम्हें बचे हैं .....
मेरे जिस्म से निकला है लावा 
इक शोला बैठ गया है छिप कर -
रूह के पिछले हिस्से में 
इक खला सी बस गयी है ......

ना उदासी है ना हैरानी है 
न ख़ामोशी , न तन्हाई 
सीला सा मौसम है बस...!
न धूप है ना बारिश 
बस चिपचिपे से लम्हें 
बरसते जाते हैं बादलों से ....

मैं बचते बचाते ; इन लम्हों से 
धकेलता हुआ पीछे 
बढ़ता जाता हूँ बादलों की ओर ...

इसी एक बादल पर पाँव रख कर 
मैं उस पार उतर जाऊँगा ..
बस कुछ ही लम्हों में -
इस जहाँ से गुजर जाऊँगा ...!!


मानव मेहता 'मन' 


Monday, July 22, 2013

मानो इक ही कहानी का हक़दार था मैं...


















मानो इक ही कहानी का हक़दार था मैं...
साल दर साल गुजरते गए,
हर लम्हे को पीछे छोड़ा मैंने,
मगर आज तक ये मलाल है मुझको,
कि मेरी जिंदगी कि किताब के हर सफ्हे पर;
एक सी ही लिखावट नज़र आई है मुझे...

गम ; अफ़्सुर्दगी ; रंज ; और तन्हाई;
बस इन्ही लकीरों में जिया जाता हूँ हर लम्हा...
और मजबूरी के आलम में पलट रहा हूँ,
इक इक करके-
उम्र की इस किताब का हर इक सफ़्हा...

बस अब तो बेसब्री से इंतजार कर रहा हूँ मैं-
इस आखिरी सफ्हे का,
जब इन सबसे निजात मिल जायेगी मुझको,
और मैं भी सोऊंगा इक दिन
अपने Coffin में सुकून भरी नींद....!!



मानव मेहता 'मन' 

Wednesday, July 03, 2013

उमस भरी रात...

रात तारों ने फांसी लगा ली...
चांदनी का कफ़न ओढे-
चाँद सोता रहा ।
दर्द चिपचिपाते रहे आपस में...
उमस भरी रात जख्म कुरेदती रही...
अँधेरा कचोटता रहा-
जेहन में पलती हुई नज़्म को...
क़त्ल हो गए कुछ लफ्ज़-
घुटती हुई साँसों में घुट कर...
कल शब् भर आसमाँ से
मातम बरसते देखा मैंने ।


Wednesday, June 19, 2013

जिंदगी











.......कभी गरम धूप सी चुभती है जिंदगी,
कभी हसीं शाम सी कोमल लगती है जिंदगी....

कभी मासूम सुलझी सी दिखती है जिंदगी,
कभी उलझनों के जाले बुनती है जिंदगी......

कभी लगता है कि ये अपनी ही हो जैसे,
कभी गैरों सी अजनबी लगती है जिंदगी......

कभी झरनों  सा तूफान लगती है जिंदगी,
कभी नदी सी खामोश लगती है जिंदगी.......!!



मानव ‘मन’

Thursday, June 06, 2013

मुहब्बत का इत्र

















इस हवा के बदन पर मैंने 
अपनी मुहब्बत का इत्र छिड़का है .... 
और भेजा है तेरी ओर बंद लिफ़ाफे में भर कर ..... 

जब मिल जाए तो इसको 
धीरे से खोलना 
महसूस करना मेरी वफ़ा को 
और भर लेना साँसों में अपनी .... 

नई सुबह फिर से नया पैगाम भेजूँगा ....... 
तब तक अपने जिस्म को महकाए रखना इससे .... !!


'मन'