Friday, November 19, 2010

पतझड़........

मैंने देखा है उसको
रंग बदलते हुए....
हरे भरे पेड़ से लेकर,
एक खाली लकड़ी के ठूंठ तक.......
गए मोसम में,मेरी नज़रों के सामने,
ये हरा-भरा पेड़-
बिलकुल सूखा हो गया....
होले-होले इसके सभी पत्ते,
इसका साथ छोड़ गए,
और आज ये खड़ा है
आसमान में मुंह उठाये-
जैसे की अपने हालत का कारन,
ऊपर वाले से पूछ रहा हो....!!!!



इसके ये हालत,
कुछ मुझसे ज्यादा बदतर नहीं हैं,
गए मोसम में,
मुझसे भी मेरे कुछ साथी,
इसके पत्तों की तरह छुट गए थे......
मैं भी आज इस ठूंठ के समान,
मुंह उठाये खड़ा हूँ आसमान की तरफ.....

आने वाले मोसम में शायद ये पेड़,
फिर से हरा भरा हो जाएगा.....
मगर न जाने मेरे लिए,
वो अगला मोसम कब आएगा.....
जाने कब....???

लिख रहा हूँ मैं अपनी कलम के ठहरने तक....











ज़िन्दगी सुबह से लेकर शाम ढलने तक,
रात तडपाती है सिर्फ सुबह निकलने तक.....


इस दुनिया में अजीब लोग बसते हैं यारों,
जिंदा रहते हैं सिर्फ, सांस चलने तक...


और कब तलक गुलशन में खिजा का जोर चलेगा,
फूल भी बेबस हैं इक बूँद छलकने तक...


दीवाना हूँ न मेरी बातों पर गौर करो,
लिख रहा हूँ मैं अपनी कलम के ठहरने  तक....

Wednesday, November 17, 2010

कभी तो खुल के भी मिल......












कभी तो खुल के भी मिल मुझसे किसी मेहरबान की तरह,
मेरा ये दिल है खाली पड़े मकान की तरह...

तेरी चाहत का एहसास मुझे जिंदा रखे है,
वर्ना मेरी ज़िन्दगी तो है इक शमशान की तरह...

तू कुछ और नहीं सिर्फ मेरी अमानत है,
तुझको संभाले रखा है मैंने जिस्म-ओ-जान की तरह...

तेरी मोहब्बत से मेरे गुलशन में बहार आई है,
वर्ना पहले था ये चमन किसी वीरान की तरह...

Saturday, September 11, 2010

आज गर्दे-राह हुआ.............

उम्र गुज़री थी, जिस आशियाने को सजाने में,
वही आशियाना मेरा, जल कर तबाह हुआ....

न जाने किस बात की सज़ा मिली मुझको,
न जाने कौन सा ऐसा, मुझसे गुनाह हुआ....

कतरा कतरा जोड़ कर, जो खुशियाँ समेटी थीं,
उन्ही खुशियों का तमाशा सरे राह हुआ...

जाने किस मोड़ से तेरा साथ छूट गया,
जाने किस मोड़ से दर्द-ओ-ग़म हमराह हुआ...

आस्ताने-यार तक पहुँच पाना मुनासिब नहीं लगता,
आ पड़ा पैरों में, वही मंजिले-गुज़रगाह हुआ...

है ज़माने की चाल बड़ी अजब क्या जानिये,
जो आफ़ताब हुआ करता था कभी, आज गर्दे-राह हुआ....


मानव मेहता 

Saturday, August 14, 2010

मेरे जीने का थोड़ा सा, सामान कर दिया...

उनकी नज़रों ने मुझे फिर से जवाँ कर दिया,
मुझे छू कर मुझ पर, एहसान कर दिया...

कब से बैठी थी मैं, गुमसुम सी यूँ ही,
दिल में मिरे, इक तूफान कर दिया...

मेरा अब कुछ भी रहा नहीं मेरा,
नाम उसके मैंने जिस्म-ओ-जान कर दिया...

उसकी आँखों ने कुछ ऐसे देखा,
हाल-ए-दिल उसको बयान कर दिया...

वादा जब से किया उसने मिलने का,
मेरे जीने का थोड़ा सा, सामान कर दिया...


मानव मेहता 

Thursday, August 12, 2010

अब आ भी जाओ ...........

""यूँ तेरा मुझसे रूठ कर जाना गवारा नहीं ,
कि इस दुनिया में कोई भी हमारा नहीं ...

तुम भी चले जाओगे तो कौन साथ देगा ,
तेरे सिवा कोई और हमें देगा सहारा नहीं ..

यूँ तो दीखते है कई लोग हमें महफ़िल में ,
पर इन नज़रों को तेरे सिवा कोई प्यारा नहीं ...

तोड़ लाऊं आसमान से तेरे गेसुओं में सजाने को ,
मगर तेरे काबिल इस आसमान में कोई सितारा नहीं ...

तमन्नाएं कुछ नयी करवटें ले रही है इस दिल में ,
अब आ भी जाओ कि तेरे बिना गुजरा नहीं ...""

Monday, August 02, 2010



"वो जो कहते हैं की पी कर गिरते हो तुम,
क्या बताएं उन्हें की पी कर ही सँभालते है हम...
ये जो देती है हमें दुनिया ताने सौ सौ,
उनसे बचने का ही कुछ एहतराम करते हैं हम..."


गिला करते नहीं उनसे किसी भी बात पर,
अफ़सोस रहेगा हर पल अपने हालत पर.........
वो चाहे पुकारे या ना पुकारे मेरे नाम को कभी,
बस चुके हैं वो लकीरों की तरह मेरे हाथ पर.........

Friday, July 30, 2010

दोस्ती के नाम.......
















बड़ा प्यारा हमने तुमसे ये रिश्ता अजीब रखा है,
सभी दोस्तों से तुमको, हद से ज्यादा अज़ीज़ रखा है..

महरबानी जो तुमने कबूल की है दोस्ती मेरी,
शुक्रिया तेरा जो मुझे अपने दिल के करीब रखा है..

ये मरासिम रहे बरकरार ये तमन्ना है मेरी,
तेरा नाम आज से हमने अपना नसीब रखा है..

ये दोस्ती का शजर यूँही फलता रहे उम्र भर,
इस पौधे का हमने अपने हाथों से बीज रखा है..

है तुम पर नहीं कोई शक, फिर भी दिल घबराता है,
शायद इसने भी दुनियादारी से कुछ सीख रखा है..

न जाना मुझे छोड़ कर मझधार में ए दोस्त,
उड़ जाएगा वो परिंदा, जो मुट्ठी में भींच रखा है...

Sunday, July 11, 2010

खबर नहीं की खुदी क्या है, बेखुदी क्या है

खबर नहीं की खुदी क्या है, बेखुदी क्या है,
यहाँ तो आलम है की नहीं मालूम, की आदमी क्या है ?

चढ़ा रखे है यहाँ हर चहेरे में, सौ सौ नकाब,
उतार रखी है सभी शर्म-औ-हया; ये ज़िन्दगी क्या है ?

गर वफ़ा का वजूद है, अब भी दुनिया में कायम,
तो नज़र आती है जो जहाँ में, ये दुश्मनी क्या है ?

बह रहा है 'चश्म ऐ अश्क' ना जाने कब से मेरा,
फिर भी दिल में बसी, ये 'तिशनाकामी' क्या है ?

ये 'मुंसिफ' ये 'इमाम' है अपनी जगह दुरुस्त मगर,
हर बात पर मेरी उनकी, ये 'नुक्ता चीं' क्या है ?

हम दूर ही भले, इस दुनिया के 'रोज़गार' से अकेले,
डूब जाते गर मालूम होता; ये 'बहरे हस्ती' क्या है ?


['चश्म ऐ अश्क'- aansuon ka jharna]
['तिशनाकामी' - atyant pyass]
['नुक्ता चीं' - meen mekh nikalna]
['रोज़गार'- duniya-daari]
['बहरे हस्ती' -zindagi ka samundar]