Monday, October 26, 2009

मरासिम....


"दर्द आँखों में छलक जाए, तो छुपायें कैसे,
'वो जो अपने थे, उन्हें अपना बनाएं कैसे...'


'दर्द' मिलता है कभी 'हवाओं' से, तो कभी 'बारिश' से,
'साथ बीता हुआ वो 'सावन', हम भुलाएँ कैसे....'


'कभी गुज़री थी 'ज़िन्दगी', तेरे 'पहलु' में 'जन्नत' की तरह,
'अब फिर से ये 'ज़िन्दगी', 'जन्नत' बनाएं कैसे....'


'तुम तो चले गए, मुझसे 'बेसबब' 'रूठ' कर,
'अब वापिस तुम्हे अपनी 'ज़िन्दगी' में, बुलाएं कैसे....


'कहते थे तुम कभी जो 'आइना' मुझको,
'अब इस 'आईने' में तुम्हे, तुम्हारी 'शकल' दिखाए कैसे...'


'दे रही हैं 'सदाएँ' आज भी इस 'दिल' की 'धड़कन' तुमको,
'पर सोचते हैं तुम्हे ये 'आवाज', सुनाएँ कैसे...'


'इक 'भरम' पाला है मैंने, मेरे 'जहन' के कोने में,
'बरसों के ये 'मरासिम', इक पल में हम मिटायें कैसे...."


"लहरों को 'चकनाचूर' होते
देखा है अक्सर 'चट्टानों' से,
मुझे मालूम न था की इक दिन-
मेरे भी 'सपने'-
इसी तरेह चकनाचूर होकर 'बिखर' जायेंगे.....


मैंने तो अपने आप को समझाया,
की अब ये 'सपने',
कभी 'साकार' न होंगे,

पर ये 'कमबख्त' 'दिल' कहता है की-
 कभी न कभी आकर,
'वो' मेरे 'टूटे' हुए 'सपनों' को,
'नया रूप' देंगे..






"जब भी सुलझाना चाहा, ज़िन्दगी के सवालों को मैंने,
हर इक सवाल में ज़िन्दगी मेरी उलझती चली गयी..."




"अब तो हर तरफ तन्हाई ही दिखती है,
चले गए हैं सब न जाने कहाँ छोड़ कर मुझे...."

Wednesday, October 14, 2009

तेरे घर की 'दिवाली'


"तुम आये हो न, 'हिज्र' के दिन ढले हैं,'
इस बार तो 'अश्कों' के ही, 'अलाव' जले हैं...'


'आओगे तुम कभी, इस 'राह' पर 'हमसे' 'मिलने,
'आस में इसी 'मोड़' पर, कितने ही 'चिराग' जले हैं...'


'अजीब रंग में, अब के 'बहार' गुजरी है,
'न मिले हो तुम हमसे, न 'गुलाब' खिले हैं...'


'किस-किस 'ख्वाहिश' को, पूरा करेंगे हम अकेले,
'पलकों में तो अपने, ढेरों ही ख्वाब पले हैं...'


'जब भी चाह डूबना, खुशियों के 'समन्दर' में,
'हर बार तो हमें 'दर्द' के, 'सैलाब' मिले हैं...'


'इस बार तेरे 'घर' की 'दिवाली', न जाने कैसी होगी ?
'अपने 'घर' तो 'अँधेरा', सिर्फ 'चिराग' तले है..."


Saturday, October 10, 2009


"क्या क्या न सोचा था हमने,
की इस तरेह से ज़िन्दगी बिताएंगे,
पर मालूम न था हमें की
अगले ही मोड़ पर
अपनी ज़िन्दगी से ही धोखा खायेंगे....."



written by:- Dinky Mehta

Wednesday, September 30, 2009

तेरी ओर कौन सी डगर जाती है...


"नींद की चादर कभी खुलती नहीं, और रात गुज़र जाती है,
'तेरी तस्वीर देखते-देखते, मेरी तकदीर संवर जाती है...'

'कहने को तुम दूर हो मगर, पर 'दूर' कभी हुए नहीं हमसे,
'दिखते' हो तुम हर जगह, जहाँ कही ये 'नज़र' जाती है...'

'दिन भर तेरी यादों की, 'धुप' में जला करते हैं,
'शाम ढलते ही तेरी 'तन्हाई', दिल में उतर जाती है...'

'तुम भूल गए हो शायद, वो अपने 'वादे' दोस्ती के,
'मेरी 'खामियां' भी अब तुमको, 'गुनाह' नज़र आती है...'

'अगरचे' इस बार 'बिछडे', तो शायद ही मिल पायेंगे,
'इसी सोच पर अक्सर,मेरी 'धड़कन' ठहर जाती है...'

'कब 'मिलोगे हमसे ऐ 'दोस्त', उसी 'शक्ल' में वापिस,
'जिस 'सूरत' में तेरी 'दोस्ती' मुझे, 'जन्नत' सी नज़र आती है...'

'वही 'गली' है, वही 'मकान' है, वही 'शहर' है तेरा,
'मगर भूल गया हूँ तेरी ओर, कौन सी डगर जाती है..."

दर्द की शाम......












"दर्द की शाम ढल नहीं सकती,
'मेरी 'किस्मत' बदल नहीं सकती.'

'वो जो कहते थे 'बेवफा' मुझको,
'उनकी 'आदत' बदल नहीं सकती.'

'जिनके हिस्से में 'डूबना' है लिखा,
'कश्तियाँ' उनकी 'संभल' नहीं सकती.'

'मैंने देखा है 'मोहब्बत' का चेहरा ऐसा,
'की फिर से 'तबियत' मचल नहीं सकती.'

'अब तो 'मुश्किल' है 'ठहरना' 'यारों,
'ये 'मौत' मेरी अब टल नहीं सकती.'

'मैंने 'चाहा' 'वो' जो मिल नहीं सकता,
'दिल की यह 'हसरत' निकल नहीं सकती."


मानव मेहता 

मौत मांगता हूँ




"मौत मांगता हूँ अब, तो वो आती नहीं,
ज़िन्दगी से अब डर लगने लगा है मुझे,
क्या कहूँ कैसा हाल हो गया है अब मेरा,
हर कोई 'बेवफा' लगने लगा है मुझे..."

न हो सकी..


"महफिल तो सजा दी थी तुने,
इक चाँद की तरह,
पर अफ़सोस उसमे रौशनी,
सितारों जितनी भी न हो सकी..