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Saturday, August 10, 2013

माँ, तुम यहीं रुको, मैं बस अभी आया |












मैले कुचैले कपड़ों में लिपटी
एक बूढ़ी औरत
सर से लेकर पाँव तक झुकी हुई
एक वक्त की रोटी भी नसीब नहीं जिसको
हाथ बाए खड़ी है चौराहे पर
पेट भरने के लिए
मांगती है भीख |

मुरझाई हुई सी
इन बूढ़ी आँखों को
चंद सिक्कों के आलावा
तलाश है कुछ और |

झाँका करती है अक्सर
आते जाते लोगों के चेहरों में
ढूँढा करती है उस शख्स को
जो पिछले बरस कह के गया था
‘माँ, तुम यहीं रुको, मैं बस अभी आया |’


मानव 'मन' 

Friday, August 05, 2011

माँ


 ममता की मूरत होती है माँ,
ज़िन्दगी की जरुरत होती है माँ...
खुशियों का खजाना होती है माँ,
देवी सी सूरत होती है माँ...
माँ ही हमको देती है शिक्षा,
गुरु है वो नहीं लेती दीक्षा...
उसके ही आँचल में हमें मिलता है प्यार,
हद से ज्यादा हमें देती है दुलार...
दिखाती है हमें वो मंजिल सही,
वहां जाने का रास्ता भी बताती वही...
ज़िन्दगी की मुश्किलों से जब कभी थक जाते हैं हम,
तो उसकी छाँव में कुछ देर सुस्ताते हैं हम...
हमारे दुःख में वही होती है इक सहारा,
डूबते का वही बनती है इक किनारा...
कठिनाइयों से लड़ना सिखाती हैं माँ,
बाधाओं से भिड़ना सिखाती है माँ...

सोचता हूँ जो ये माँ न होती,
तो दुनिया इतनी हंसी न होती...
माँ के बिना तो अधुरा है सब कुछ,
आशीष से ही उसके पूरा है सब कुछ...
खुशनसीब हैं वो जिन्हें मिला माँ का प्यार,
प्यार भरी ही होती है उस माँ की मार...
सुख - दुःख में साथ देती है वो,
इक दोस्त जैसी बात करती है वो...
जितना भी लिखूं उसके लिए सब कम है,
माँ से ही दुनिया, और माँ से ही हम हैं......!!

                                                                     मानव मेहता