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Monday, January 06, 2014

दर्द-ए-जिंदगी












जिंदगी दर्द में दफ़न हो गई इक रात,
उदासी बिखर गई चाँदनी में घुल कर....!!
चाँद ने उगले दो आँसू,
ज़र्द साँसें भी फड़फड़ा कर बुझ गयी......!!

इस दफा चिता पर मेरे-
मेरी रूह भी जल उठेगी.........!!




मानव मेहता 'मन'  

Thursday, May 16, 2013

हाल-ए-जिन्दगी
















ना राह ना मंजिल, कुछ ना पाया जिन्दगी में
ना जाने कैसा मोड़ ये आया जिन्दगी में


तकलीफ,दर्द,चुभन,पीड़ा सब कुछ मिले इससे
फ़कत एक खुशी को ही ना पाया जिन्दगी में

वक़्त के मरहम ने सभी घाव तो भरे मेरे
मगर जख़्मों से बने दाग को पाया जिन्दगी में

औरों की खुशी के लिए अपनी खुशी भूल गए
मुस्कराते हुए अकसर गम छुपाया जिन्दगी में

तन्हाइयों को चीरती आवाज ना सुन सका कोई
इस कदर खुद को अकेला पाया जिन्दगी में..... 



मानव मेहता 'मन'

Wednesday, March 20, 2013

दर्द












कुछ रोज पहले ही तो-
दफ़नाया था तुझको...
मकान के पिछले लॉन में.....


मिट्टी की जगह डाले थे,
कुछ लम्हें अफसुर्दगी के-
और अपनी आँखों का खरा पानी भी-
छिड़का  था उस पर ...
और सबसे ऊपर अपने ज़ख्मों का-
बड़ा सा पत्थर भी रख छोड़ा था उस पर....

सोचा था जिंदगी अब से आसान गुजरेगी....
हुं.....!!!

वहम था मेरा.....
भला नाखूनों से भी माँस जुदा हुआ है कभी....

कल रात उस जगह-
इक पौधा उग आया है फिर से...
कल रात से दर्द अब फिर से मेरे साथ है.....!!!


:- मानव मेहता 'मन'

Tuesday, May 08, 2012

दर्द















वक्त को हथेली पर रख कर
ऊँगलियों पर लम्हें गिने हैं...
दर्द देता है हौले से दस्तक-
इन लम्हों के कई पोरों में बसा हुआ है वो....!!

ज़ब्त करती हैं जब पलकें,
किसी टूटे हुए ख्वाब को-
आँखों में दबोचती हैं
तब पिघलता नहीं है मोम-
बस टुकड़े चुभते हैं उस काँच के....!!

इन आँखों से अब पानी नहीं रिसता,
दर्द अब पत्थर हो चला है.....!!

Sunday, September 25, 2011

'इक खलिश' का ही हमराह बन कर, रह जाएगा अब तू...











"कौन है तेरा वहां, किस के पास जायेगा अब तू,
 'कौन पहचानेगा तुझे, बस्ती में जो जाएगा अब तू....'

 'वो तो बनते है तेरे सामने, तजाहुल-पेशगी*,
 'बाद ए मौत ही उसका साथ, पायेगा अब तू...

'सुराब* न निकले, उनकी भी ये दोस्ती कहीं,
'दुआ कर ले खुदा से, वर्ना मर जाएगा अब तू.....'

'हर वक्त तो रहती है आँखों में, यार की गर्दे राह*,
'किस तरह प्यार उसको, दिखा पायेगा अब तू....'

'कब तक उठाये फिरेगा, तू ये बारे-मिन्नत*,
'कर दे वापिस इसको वरना थक जाएगा अब तू....'

'वो शख्स तो है जालिम और जां-गुसिल कब से,
'क्या उसका ये बेदाद*, सह पाएगा अब तू.....'

'न कर उम्मीद किसी से की कोई आएगा पास तेरे,
'इक खलिश* का ही हमराह बन कर, रह जाएगा अब तू...'"



                                                                           मानव मेहता 

*तजाहुल-पेशगी- जान बुझ कर अनजान बनना,
*सुराब- छलावा,
*गर्दे राह- रास्ते की धूल,
*बारे मिन्नत- एहसानों का बोझ,
*जां- गुसिल- प्राण घातक,
*बेदाद- अत्याचार,
*खलिश- चुभन,

Friday, September 16, 2011

चाक है सीना जख्मों से..........


"मैंने ज़िन्दगी को नहीं, ज़िन्दगी ने मुझे जिया लगता है,
एक अजीब सा खारापन, आँखों ने 'पिया' लगता है...

एक उम्र से मैं अपनी ज़िन्दगी की तलाश में हूँ,
ये जीवन तो जैसे, किसी से, उधार 'लिया' लगता है...

ख्वाहिशों  के फूल मुरझा गए मेरे जेहन के अन्दर ही,
चाक है सीना जख्मों से, फिर भी 'सिया' लगता है...

अंधेरापन ही मेरी ज़िन्दगी को रास आ गया है शायद,
मेरी नज़रों को चुभता हुआ सा, अब हर 'दिया' लगता है..."

       
                                                                              मानव मेहता 

Wednesday, February 23, 2011

रिश्ते की सच्चाई..........

तुम हो अगर  और मैं भी हूँ,
फिर भी लगती  तन्हाई है..
सच मानो ! दोस्त मेरे
हमारे रिश्ते की रुसवाई 
                 चंद लफ्ज़ भर ना पाए जिसे
                  ये कैसी बीच में  खाई है..
                                तुम दूर हो या पास मेरे
                                बतला दो क्या सच्चाई है ................!! 

Monday, October 26, 2009

मरासिम....


"दर्द आँखों में छलक जाए, तो छुपायें कैसे,
'वो जो अपने थे, उन्हें अपना बनाएं कैसे...'


'दर्द' मिलता है कभी 'हवाओं' से, तो कभी 'बारिश' से,
'साथ बीता हुआ वो 'सावन', हम भुलाएँ कैसे....'


'कभी गुज़री थी 'ज़िन्दगी', तेरे 'पहलु' में 'जन्नत' की तरह,
'अब फिर से ये 'ज़िन्दगी', 'जन्नत' बनाएं कैसे....'


'तुम तो चले गए, मुझसे 'बेसबब' 'रूठ' कर,
'अब वापिस तुम्हे अपनी 'ज़िन्दगी' में, बुलाएं कैसे....


'कहते थे तुम कभी जो 'आइना' मुझको,
'अब इस 'आईने' में तुम्हे, तुम्हारी 'शकल' दिखाए कैसे...'


'दे रही हैं 'सदाएँ' आज भी इस 'दिल' की 'धड़कन' तुमको,
'पर सोचते हैं तुम्हे ये 'आवाज', सुनाएँ कैसे...'


'इक 'भरम' पाला है मैंने, मेरे 'जहन' के कोने में,
'बरसों के ये 'मरासिम', इक पल में हम मिटायें कैसे...."