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Saturday, September 21, 2013

....हांसिल.... (लघु कथा)

तुम... तुम तो चली गयी थी ना... फिर कैसे आई हो तुम... क्यूँ आई हो तुम... तुम्हे मेरे सामने आने में ज़रा भी हिचकिचाहट नहीं हुई?... क्या देखने आई हो तुम भला... यही ना कि तुम्हारे बिना कैसे जी रहा हूँ मैं... या ये देखने आई हो कि कितना मर चुका हूँ तुम्हारे न होने पर... तुम खामोश क्यूँ हो... अब जुबां पर ख़ामोशी कैसे रख ली तुमने... तुम तो ऐसी न थी... तुम तो बेबात मुझे कोसती ही रहती थी... सारा दिन बिना बात पर मुझसे झगड़ा करना तुम्हारी फितरत में शुमार था...  अब क्यों खामोश हो... चीखो... चिल्लाओ... गालियाँ दो मुझे... फिर एक बार मुझे बुरा भला कहो... आखिर तुम यही तो करती आई हो हर बार...
अँधेरे में बने एक साए को देख कर राजेश बोलता ही जा रहा था... लम्बी ख़ामोशी के बाद भी जब कोई जवाब न मिला तो उसने कमरे की बत्ती जला दी... मगर वहां कोई नहीं था... था तो सिर्फ वो, उसका ग़म, और उसकी तन्हाई... और खुद को संभाले रखने के लिए एक बोतल शराब... आखिर यही तो हांसिल था उसका इस ज़िन्दगी में... रजनी को खो कर यही सामान तो जुटा पाया था राजेश...