किताबें धूल फांकती है शेल्फ पर
अरसा हो गया है
उन्हें पढ़े हुए
मैं नहीं खोलता अब उनके वर्क –
कि अब उन लफ्ज़ों में
ठहरता नहीं है मन
रात जब मद्धम करके रौशनी को
अपनी टेबल पर बैठता हूँ
तो उन किताबों से खुद ब खुद निकल कर
आ बैठते हैं कुछ अल्फाज़ मेरे ज़ेहन में
बहुत शोर करती है
लफ्ज़ों की खनखनाहट
मगर जब इन्हें समेट कर
लिखना चाहूँ जो राइटिंग पैड पर
तो गायब हो जाते हैं अचानक ...
अब इनसे मेरा वास्ता नहीं रहा कोई
ना मैं अब इनके करीब जाता हूँ
ना ये मेरे करीब आते हैं |
अरसा हो गया
किताबें धूल फांकती है शेल्फ पर ....!!
~मानव ‘मन’
अच्छी रचना
ReplyDeleteसच किताबों की दुनिया सिमटती जा रही है
ReplyDeleteबहुत बढ़िया रचना
आपको जन्मदिन की बहुत-बहुत हार्दिक शुभकामनाएं!
आदरणीय / आदरणीया आपके द्वारा 'सृजित' रचना ''लोकतंत्र'' संवाद मंच पर 'सोमवार' १५ जनवरी २०१८ को लिंक की गई है। आप सादर आमंत्रित हैं। धन्यवाद "एकलव्य" https://loktantrasanvad.blogspot.in/
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