Saturday, September 11, 2010

आज गर्दे-राह हुआ.............

उम्र गुज़री थी, जिस आशियाने को सजाने में,
वही आशियाना मेरा, जल कर तबाह हुआ....

न जाने किस बात की सज़ा मिली मुझको,
न जाने कौन सा ऐसा, मुझसे गुनाह हुआ....

कतरा कतरा जोड़ कर, जो खुशियाँ समेटी थीं,
उन्ही खुशियों का तमाशा सरे राह हुआ...

जाने किस मोड़ से तेरा साथ छूट गया,
जाने किस मोड़ से दर्द-ओ-ग़म हमराह हुआ...

आस्ताने-यार तक पहुँच पाना मुनासिब नहीं लगता,
आ पड़ा पैरों में, वही मंजिले-गुज़रगाह हुआ...

है ज़माने की चाल बड़ी अजब क्या जानिये,
जो आफ़ताब हुआ करता था कभी, आज गर्दे-राह हुआ....


मानव मेहता 

11 comments:

  1. भाई वाह..बहुत ही बढ़िया ग़ज़ल ...
    आभार .....

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  2. अल्फाजों के साथ इंसाफ किया है, शुभकामनायें

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  3. वाह बहुत खूब। लाजवाब। बधाई।

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  4. बहुत सुन्दर.....दर्द लफ़्जों से पन्नों पर उतर आया है...............

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  5. चर्चा मंच के साप्ताहिक काव्य मंच पर आपकी रचना 14 - 9 - 2010 मंगलवार को ली गयी है ...
    कृपया अपनी प्रतिक्रिया दे कर अपने सुझावों से अवगत कराएँ ...शुक्रिया

    http://charchamanch.blogspot.com/

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  6. शब्दों का सटीक चयन...अच्छी रचना

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  7. a rythm of words in this ghazal..
    nice work. aapki agli ghazal ka yakeenan intezar rahega

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  8. Bahut khoob. Dil ka dard shabdon me simat kar aaya hai bahar.

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  9. आप सभी महानुभावों का बहुत बहुत शुक्रिया इस रचना को पसंद करने के लिए.....उम्मीद है आगे भी आप सभी इसी तरह अपना प्यार और आशीर्वाद देते रहेंगे..

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  10. जाने किस मोड़ से तेरा साथ छूट गया,जाने किस मोड़ से दर्द-ओ-ग़म हमराह हुआ...वाह वाह बहुत खूब लिखा है आपने हर शेर

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  11. मानव जी बहुत अच्छी नज़्म कही है ....वाह ......!!

    बहुत खूब ....!!

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आपकी टिपणी के लिए आपका अग्रिम धन्यवाद
मानव मेहता