Monday, October 26, 2009

मरासिम....


"दर्द आँखों में छलक जाए, तो छुपायें कैसे,
'वो जो अपने थे, उन्हें अपना बनाएं कैसे...'


'दर्द' मिलता है कभी 'हवाओं' से, तो कभी 'बारिश' से,
'साथ बीता हुआ वो 'सावन', हम भुलाएँ कैसे....'


'कभी गुज़री थी 'ज़िन्दगी', तेरे 'पहलु' में 'जन्नत' की तरह,
'अब फिर से ये 'ज़िन्दगी', 'जन्नत' बनाएं कैसे....'


'तुम तो चले गए, मुझसे 'बेसबब' 'रूठ' कर,
'अब वापिस तुम्हे अपनी 'ज़िन्दगी' में, बुलाएं कैसे....


'कहते थे तुम कभी जो 'आइना' मुझको,
'अब इस 'आईने' में तुम्हे, तुम्हारी 'शकल' दिखाए कैसे...'


'दे रही हैं 'सदाएँ' आज भी इस 'दिल' की 'धड़कन' तुमको,
'पर सोचते हैं तुम्हे ये 'आवाज', सुनाएँ कैसे...'


'इक 'भरम' पाला है मैंने, मेरे 'जहन' के कोने में,
'बरसों के ये 'मरासिम', इक पल में हम मिटायें कैसे...."

9 comments:

  1. अच्छी रचना.................

    सुन्दर भाव

    अच्छे शे'र.........

    ReplyDelete
  2. पूरी रचना बहुत सुन्दर है मगर इस उम्र मे इतनी उदासी अच्छी नहीं शुभकामनायें

    ReplyDelete
  3. दर्द मिलता है कभी हवाओं से तो कभी बारिश से
    साथ बिता हुआ वो सावन हम भुलाएं कैसे

    बहुत सुंदर....!!

    मानव जी आपने मन के भावों को बहुत ही साफ और सरल शब्दों में प्रेषित किया है ....!!

    ReplyDelete
  4. This comment has been removed by the author.

    ReplyDelete
  5. बहुत सुन्दर लिखते हैं आप ..यह गजल बहुत पसंद आई शुक्रिया

    ReplyDelete
  6. तुम्हारी इस गज़ल ने मुझे निशब्द कर दिया है..............

    ReplyDelete

आपकी टिपणी के लिए आपका अग्रिम धन्यवाद
मानव मेहता