Tuesday, September 01, 2009

जाने मेरी शराफत किधर गयी

रात आई और न जाने यूँ गुजर गयी,
लगता है चन्द लम्हों में ज़िन्दगी संवर गयी..


खवाब कुछ और सज गए इन आँखों में,
पलकों पर ओस की बूंदें ठहर गयी..


ओढ़ रखी है आज भी आसमान की चादर हमने,
मगर आज न जाने कहां सितारों की लहर गयी..


ऊंगलियाँ तरसती रही वो नाज़ुक सा एहसास पाने को,
निगाहें करती रही पीछा खुशबू उसकी जिधर गयी..


ना आये वो पास तो शायद यह बेहतर होगा,
आजकल न जाने मेरी शराफत किधर गयी..

No comments:

Post a Comment

आपकी टिपणी के लिए आपका अग्रिम धन्यवाद
मानव मेहता